चारा वाली फसलें (Fodder Crops For Animal Feed)
निम्न फसलों को चारे के लिए लगाते हैं –
मक्का (Maize)
ज्वार (Sorghum)
बाजरा (Pearl Millet)
लोबिया (Beans )
बरसीम (Berseem)
जई (Oat)
नेपियर घास (Napier Grass)
हरे चारे का महत्व (Important of Green Fodder Crops)
चारा हालांकि सीधे मानव उपभोग के लिये इस्तेमाल नहीं किया जाता, लेकिन वे प्रोटीन और वसा के रूप में मांस, अण्डा, दूध और अन्य डेयरी उत्पादों, जो पशु, भेड़-बकरियों से प्राप्त होता है, के माध्यम से मनुष्य तक पहुंचता है। दूध उत्पादन की कुल लागत का 60-70 प्रतिशत भाग पशुओं के आहार के रूप में खर्च होता है। अतः चारा उत्पादन का अत्यधिक महत्व है। सभी वनस्पति भागों, ताजा या संरक्षित, जो पशुओं को खिलाया जा सके, चारा कहलाता है।
चारा फसलों में घास, चारा फसलें, फलियों एवं अन्य फसलों की खेती की जाती है एवं इनका उपयोग घास, चारा, चारागाह और साइलेज के रूप में किया जाता है। ऐसी फसलें, जिनका उत्पादन चारा के रूप में पशुओं को खिलाने के लिये किया जाता है, चारा वाली फसल कहलाती है। इन चारा फसलों को काट कर गाय, भैंस, घोड़े, भेड़, बकरी, सुअर एवं मुर्गी को खिलाने के लिये उपयोग किया जाता है।
चारा फसलों को मुख्य रूप से अनाज वाले चारा, दलहनी चारा, चारागाह, चारा वाले पेड़ आदि में वर्गीकृत किया गया है। मवेशी चारा मुख्य रूप से सूखा दाना एवं हरा चारा में विभाजित किया जाता है। दाना वह खाद्य होता है, जिसमें पोषक तत्वों की मात्रा अधिक, कच्चे रेशा की मात्रा कम एवं पशुओं के लिये सुपाच्य होते हैं। ऐसे दाने, जिसमें ऊर्जा की प्राप्ति अधिक हो ऊर्जा देने वाले दाने एवं, जिनमें प्रोटीन की मात्रा अधिक हो, वे प्रोटीन प्रदाय करने वाले दाने कहलाते हैं।
पशु दाना के लिये अनाज, मोटे अनाज, अनाजों के भूसे एवं खली का प्रयोग किया जाता है। हरे चारे में अधिक कच्चा रेशा एवं अपेक्षाकृत कम पोषक तत्व पाया जाता है। चारा फसलों को मुख्य रूप से बहुवर्षीय फसलों में वर्गीकृत जाता है। खरीफ फसलों में ज्वार, बाजरा, मक्का, लोबिया, राइसवीन आदि फसलें लगाई जाती हैं। रबी फसलों में जई, वरसीम, लूसर्न एवं गर्मियों में लोबिया, मक्का, बाजरा एवं सूडान घास की फसलें ली जा सकती है। बहुवर्षीय फसलें जैसे- नेपियर, स्टाइलो घास, अंजन घास, दीनानाथ घास एवं बहुवर्षीय ज्वार आदि आती हैं।
पशुओं को स्वस्थ रखने के लिये एवं उनका दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिये हरा चारा अति आवश्यक है। पशु इनको चाव से खाते हैं और आसानी से पचाते हैं। हरे चारे में वांछित विटामिन-ए और खनिज अधिक मात्रा में होते हैं। हरा चारा कोमल एवं रसीला होने के कारण पशुओं द्वारा पसन्द किया जाता हैं हरा चारा स्वादिष्ट, शीघ्र पाचक एवं स्वास्थ्यवर्धक पोषक तत्वों से भरपूर होता है। हरे चारे में रेशे की मात्रा अधिक होने के कारण पेट भरने वाला होता है।
हरे चारे में पानी की मात्रा अधिक होने के कारण मृदुरेचक प्रभाव पैदा करता है। हरा चारा जुगाली करने वाले पशुओं के रूमेन में जीवाणुओं की क्रिया के लिये अनुकूल अवस्थायें पैदा करते हैं तथा जीवाणु इनसे अमीनो अम्ल बनाते हैं, जो रूमेन की दीवार से शोषित होकर पशु को शक्ति प्रदान करते हैं। हरे चारे की मात्रा को बढ़ा कर दाना की मात्रा को कम किया जा सकता है।
पशुओं के आहार को नियत करते समय हरा चारा पशु के दुग्ध उत्पादन, शरीर भार एवं अन्य कारक के आधार पर 15 से 25 कि.ग्रा. देना चाहिये। छततीसगढ़ में पशुओं को खिलाने के लिये सूखे चारे का प्रयोग अधिक किया जाता है। राज्य में हरे चारे की पूर्ति ज्यादातर जंगलों से की जाती है। अतः हरे चारे का उत्पादन एवं चारागाह विकास अति आवश्यक है। ताकि राज्य में पशुधन का समुचित विकास किया जा सके।
एक अनुमान के अनुसार राज्य में हरे चारे की उपलब्धता में कमी लगभग 60 प्रतिशत से अधिक है। राज्य में सूखे चारे में 90 प्रतिशत भाग धान पैरा का उपयोग किया जाता है। छत्तीसगढ़ में चारा वाली फसलें उगाने की भरपूर संभावनायें हैं। अतः राज्य में पशुधन विकास हेतु हरे चारे के महत्व को देखते हुये किसान अपनी खाली पड़े खेतों, मेड़ों, थोड़ा उपजाऊ भूमि में उचित प्रबन्ध कर हरा चारा उगा सकते हैं।
किसान उचित फसल-चक्र, वैज्ञानिक पद्धति, उन्नत किस्म एवं अच्छे बीज को अपना कर साल भर हरा चारा अपने पशुओं के लिये उगा सकते हैं, जिससे उनके पशुओं के स्वास्थ्य एवं दुग्ध उत्पादन में वृद्धि की जा सके। मक्का मक्का संपूर्ण भारत में उगाई जाने वाली आदर्श चारा फसल है। यह जल्दी बढ़वार वाली स्वादिष्ट व पोषक हरा चारा फसल है।
यह पशुओं के विकास के लिए अच्छा माना जाता है। मक्का फसल को किसी भी अवस्था में पशुओं को खिलाया जा सकता है। इससे अच्छी गुणवत्ता का साइलेज भी तैयार किया जाता है। इसमें 9-10 प्रतिशत कूड प्रोटिन पाया जाता है। मृदा एवं उसकी तैयारी: मक्का के लिये अच्छी जल निकास वाली समतल एवं उपजाऊ जमीन उपयुक्त होती हैं।
1. मक्का (Maize fodder crops)
सूखे एवं नमी के प्रति संवेदनशील होती है, दो जुताई देशी हल या हैरो से कर पाटा लगा कर खेत समतल तैयार करना चाहिये। बुवाई का समय मक्का की बुवाई गर्मी में फरवरी के अंतिम सप्ताह से मार्च अंत तक, खरीफ में वर्षा शुरु होने पर जून-जुलाई में एवं रबी फसल की अक्टूबर-नवम्बर में बुवाई की जा सकती है।
मक्के की उन्नत किस्में
अफ्रीकन टाल, प्रताप मक्का चरी-6, विजय, जी.एफ.- 405, जे-1006, जे-1007, के.डी.एफ. एम.-1, ए.पी.एफ. एम.-8, छत्तीसगढ़ मक्का चरी-1
अधिक उपज हेतु 50-60 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर हल के पीछे या सीडड्रीत
मक्के की बीज दर एवं बुवाई विधि
द्वारा पंक्ति से पंक्ति 30 से.मी. की दूरी पर बुवाई करनी चाहिये। खाद एवं उर्वरक मक्का की अधिक उपज हेतु नत्रजन 80-100, फास्फोरस 40, पोटाश 40 कि. ग्रा. हेक्टेयर डालनी चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के समय एवं शेष आधी मात्रा पौधों के घुटने तक आने पर डालनी चाहिए।
सिचाई मक्का नमी एवं सूखे के प्रति ज्यादा संवेदनशील है। गर्मियों में 10-12 दिनों के अंतराल पर 5-6 सिंचाई, खरीफ में 1-2 तथा रबी में 15-20 दिनों के अंतराल पर 3-4 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
खरपतवार नियंत्रण खरपतवार नियंत्रण हेतु एक-दो गुड़ाई करनी चाहिए अथवा टोपरामिजान 25 ग्राम सक्रिय तत्व बोने के 20-25 दिनों पश्चात 500 लीटर पानी में घोलकर चिड़काव करना चाहिये। कटाई हरे चारे हेतु बुवाई के 60-75 दिन बाद 50 प्रतिशत फूल अवस्था में कटाई करनी चाहिए। उपज अच्छे प्रबंधन के साथ ऊगाई गई फसल में 350 से 450 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
2. ज्वार
ज्वार एक पोषक और स्वादिष्ट चारा देने वाली फसल है, जिसे हरा, सूखा या साइलेज के रूप में खिलाया जाता है। शुष्क भार के आधार पर इसमें 9-10 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन पाया जाता है। यह उत्तर भारत की एक महत्वपूर्ण चारा फसल है। ज्वार गर्मी व खरीफ दोनों मौसम में उगाया जा सकता है। ऐसे क्षेत्र, जहां
अपेक्षाकृत कम बारिश होती है, ज्वार की फसल सफलतापूर्वक ली जा सकती हैं।
ज्वार को हरे चारे के रूप में प्रयोग करने के लिये फूल निकलने के पूर्व नहीं काटना चाहिये क्योंकि प्रारम्भिक अवस्था में इसमें एक विषैला पदार्थ (हाइड्रो सायनिक एसिड) पाया जाता है जो पशुओं के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है।
निकास वाली मृदा ज्वार की खेती के लिये अच्छी मानी जाती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से मृदा एवं उसकी तैयारी ज्वार की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है। अच्छी जल तथा बाद की दो जुताई हैरो से करके पाटा लगाकर समतल खेत तैयार करें। बुवाई का समय सिंचित अवस्था में एकल कटाई वाली ज्वार की किस्मों के लिये बुवाई का उपयुक्त समय मध्य मार्च से मध्य अप्रैल तक है। खरीफ फसल हेतु अन्त जून से मध्य जुलाई तक बुवाई कर देनी चाहिये।
ज्वार की उन्नत किस्में
एकल कटाई- पी.सी.-6,9,23, एच.सी.-171, यूपी चरी-12,2 राज चरी-1,2
बहु-कटाई – एस.एस.जी.-998, 855, की-27, पन्त चरी-5, एम.एफ.एस.एच.- 4,5
द्विउद्देशीय-सी.वी.एस. – 15
ज्वार की बीज दर एवं बुवाई की विधि
ज्वार की अधिक उपज लेने के लिये 30-40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से बीज प्रयोग करना चाहिये। बीजजनित रोगों के बचाव हेतु बीज को 2-3 ग्राम थीरम दवा प्रति कि.ग्रा. की दर से उपचारित करना चाहिये। बीज 2.5 से 4 से.मी. की गहराई पर 25-30 से.मी. की दूरी पर लाइनों में ड्रिल की मदद से बुवाई करना चाहिये। यदि किसी कारणवश छिड़काव विधि द्वारा बोनी करनी पड़े तो बीज की मात्रा 15-20 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिये।
ज्वार में खाद एवं उर्वरक
सिंचित या अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में 60 किलोग्राम नत्रजन बुवाई के समय तथा 30 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर बुवाई के एक माह बाद छिड़काव करें। सूडान घास अथवा अनेक कटाई वाली ज्वार में हर कटाई के बाद 30 किलोग्राम नत्रजन प्रति एकड़ देनी चाहिये। कम वर्षा वाले क्षेत्र में 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नत्रजन बुवाई के समय डालना चाहिये। मिट्टी की जांच के उपरान्त पोटाश और फॉस्फोरस यदि आवश्यक हो तो खेती की तैयारी के समय डालना चाहिये।
ज्वार में सिंचाई
मार्च-अप्रैल में बोई गई फसल में पहली सिंचाई बुवाई के 15-20 दिन बाद तथा आगे की सिंचाई 20-25 दिनों के अन्तराल पर करनी चाहिये। गर्मी की फसल में लगभग 5-6 सिंचाई की आवश्यकता होती है।वर्षा ऋतु में बोई गई फसल में आमतौर पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। यदि वर्षा का अन्तराल
अधिक हो तो 1-2 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
ज्वार में खरपतवार नियंत्रण
बरसात में बोई गई फसल में खरपतवार का प्रकोप बहुत अधिक होता है। अतः 15-20 दिन बाद सिंचाई उपरान्त बतर आने के बाद निराई-गुड़ाई की जानी चाहिये। कटाई ज्वार की प्रारंभिक अवस्था में चारे में ध्यूरिन नामक ग्लूकोसाइड पाया जाता है। अतः इसकी कटाई उस समय करनी चाहिये, जब पौधों में फूल आने लगे। एकल कटाई वाली प्रजातियों में कटाई-बुवाई के 60-75 दिन बाद करें।
बहु-कटाई प्रजातियों में पहली कटाई 40-45 दिन पर तथा उसके बाद की कटाई 30 दिनों के अन्तराल पर करें। कटाई से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि फसल में पानी की कमी तो नहीं थी। एच.सी.एन. की विषाक्तता से बचने के लिये पहली कटाई से पूर्व सिंचाई देना आवश्यक है। उपज एकल कटाई फसल से 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं बहु-कटाई से 550 से 700 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।
3. बाजरा
बाजरे की फसल दाने एवं हरे चारे के लिये भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाई जाती है। अधिक पत्तियां व रसीला होने के कारण यह स्वादिष्ट चारा होता है। अन्य चारे के मुकाबले यह जल्दी पकता है। गर्मियों के लिये बाजरा एक अच्छी चारा फसल है क्योंकि इसमें ‘धूरिन” (एच.सी.एन.) नामक विषैला पदार्थ नहीं पाया जाता है। बाजरा फसल को हरे चारे “साइलेज” या “हे” के रूप में संरक्षित कर खिलाया जाता है।
यदि बाजरे को 50 प्रतिशत फूल आने की अवस्था में काटा जाये तो चारे में शुष्क पदार्थ के आधार पर 7-10 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन तथा 33-34 प्रतिशत सेल्यूलोज होता है। बाजरा में ज्वार की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है।
बाजरा के लिए मृदा एवं उसकी तैयारी
बाजरा जल भराव होने पर अधिक प्रभावित होता है। इसके लिये हल्के से मध्यम प्रकार की भूमि की आवश्यकता होती है। यह भूमि की अम्लीयता सहन नहीं कर पाती है। अतः अच्छे जल निकास वाली भूमि उपयुक्त है। खेती की तैयारी के लिये पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से एवं दो जुताई हैरो या देशी हल से एवं अंतिम जुताई के बाद पाटा लगाकर बाजरे के लिये खेत तैयार करना चाहिये।
बाजरा की बुवाई का समय
बाजरे की चारा फसल खरीफ के लिये जुलाई का प्रथम पखवाड़ा उपयुक्त है। सिंचित क्षेत्रों में गर्मियों में बुवाई के लिये मार्च से मध्य अप्रैल का समय उपयुक्त है।
बाजरा की उन्नत किस्में
अधिक चारा उपज लेने के लिये एकल कटाई हेतु राज बाजरा चरी-2, नरेन्द्र चारा बाजरा-2, बहु-कटाई हेतु जाइंट बाजरा बी.ए.आई.एफ. बाजरा-1 जी.एफ.बी. – -1 अधिक लोकप्रिय है। हरे एवं दाने वाली किस्म ए.व्ही.के.बी.-19 है।
बाजरा का बीज दर एवं बुवाई विधि
गर्मी में बाजरा की फसल लेने के लिये बुवाई मार्च अन्त या अप्रैल के शुरू में करनी चाहिये ताकि मई-जून के कमी वाले दिनों में चारा मिलता रहे। ईष्टतम उत्पादन प्राप्त करने के लिये 10-12 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज दर उपयोग करना चाहिये। बीज की बुवाई हल के पीछे या सीड ड्रिल से 25 से.मी. की दूरी पर पंक्ति से पंक्ति 2 से.मी. गहराई पर करना चाहिये।
कवक रोगों से बचाव के लिये बीज को एग्रोसान अथवा थीरम 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज दर से उपचारित करना चाहिये। खाद एवं उर्वरक सिंचित अवस्था में 10 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी गोबर खाद बुवाई के 20 दिन पहले खेत में मिला देना चाहिये। बाजरा की फसल से अधिक चारा उत्पादन के लिये बुवाई के समय 50:30:30 कि.ग्रा. नत्रजन, फास्फोरस तथा पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिये।
एक माह बाद खड़ी फसल में 30 कि.ग्रा. नत्रजन का छिड़काव करना चाहिये। असिंचित अवस्था में बारिश होने पर 20-30 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर का छिड़काव 30-35 दिन की अवस्था में करना चाहिये।
बाजरा में खरपतवार नियंत्रण
फसल की तेज वृद्धि के लिये 25-30 दिनों पश्चात वीडर- कम-कल्चर से एक गुड़ाई प्रभावी होता है। सिंचाई खरीफ की फसल में वर्षा न होने पर 2 सिंचाई की आवश्यकता वर्षा अन्तराल के आधार पर होती है। ग्रीष्म ऋतु में 12-15 दिनों के अन्तराल पर 4-5 सिंचाई की आवश्यकता होती है।
बाजरा की कटाई
एकल कटाई वाली प्रजातियों में बुवाई के 60-75 दिन बाद 50 प्रतिशत फूल अवस्था पर कटाई करें। बहु-कटाई वाली प्रजातियों में पहली कटाई 40-45 दिन पर तथा उसके बाद की कटाई 30 दिनों के अन्तराल पर करें।
बाजरा का उपज
एकल कटाई वाली किस्मों से 300-350 क्विं. प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है। बहु-कटाई वाली किस्में 500 से 700 क्विं. प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। अधिक पैदावार व पौष्टिक चारे के लिये बाजरा व लोबिया की मिश्रित खेती की सिफारिश की जाती है।
4. लोबिया
लोबिया खरीफ एवं जायद की मुख्य दलहनी चारा फसल है, जो अधिक पौष्टिकता एवं पाचक होने के कारण काफी लोकप्रिय है। इसे घासों के साथ मिलाकर बोने से उनकी पोषकता बढ़ जाती है। यदि इसे ज्वार, बाजरा तथा मक्का के साथ उगाये तो इन फसलों के चारे की गुणवत्ता बढ़ जाती है। यह एक अति उत्तम आच्छादन फसल है जो खरपतवार को नष्ट कर भूमि की उर्वरता को बनाये रखती है।
गर्मियों में इसे दुधारू पशुओं की दूध देने की क्षमता बढ़ाने के लिये अवश्य खिलाना चाहिये। इसके चारे में औसतन 15-20 प्रतिशत प्रोटीन और सूखे दाने में 20-25 प्रतिशत प्रोटीन होता है। मृदा एवं उसकी तैयारी लोबिया सामान्यतः हल्की एवं अच्छे जल निकास वाली भूमि में अच्छी उपज देती है। खेत तैयार करने के लिये 2-3 जुताई काफी है। हैरो या कल्टीवेटर से दो जुताई करने पर अंकुरण जल्दी और अच्छा होता है।
लोबिया बुवाई का समय
लोबिया की बुवाई खरीफ में वर्षा शुरू होने के पश्चात जुलाई माह में करनी चाहिये। गर्मी वाली फसल के लिये अच्छा समय मध्य मार्च से लेकर मई का पहला सप्ताह उत्तम है, जिससे चारे की कभी वाले समय में इसका हरा चारा उपलब्ध हो सके।
लोबिया की उन्नत किस्में
बुन्देल लोबिया – 1, बुन्देल लोबिया – 2, 4, यू.पी.सी. – 5286, 698 एवं ई.सी.-4216, छ.ग. चारा बरबट्टी – 1
लोबिया का बीज दर एवं बुवाई विधि
लोबिया की बुवाई करने हेतु दो पंक्तियों के बीच की दूरी 25-30 से.मी. रखनी चाहिये । बुवाई सीड ड्रिल या हल के पीछे से करनी चाहिये । लोबिया की एकल फसल लेने के लिये 35-40 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर उपयोग करना ईष्टतम होता है । मिश्रित फसल के लिये उपर्युक्त बीज की आधी मात्रा का प्रयोग करते हुये 1:1 अथवा 2:2 की पंक्तियों में ज्वार, बाजरा अथवा मक्का के साथ लोबिया बोया जाता है।
अंकुरण के पश्चात पंक्तियों में पौधे से पौधे के बीच की दूरी लगभग 5 से 8 से.मी. रखनी चाहिये। बुवाई के समय पर्याप्त नमी होनी चाहिये। लोबिया के लिये सिफारिश किये गये राइजोबियम कल्चर से बीज का उपचार करके बुवाई करें।
लोबिया में खाद एवं उर्वरक
लोबिया दलहनी फसल होने के कारण वायुमण्डल की नाइट्रोजन से अपनी आवश्यकता पूर्ण कर लेती है। फिर भी शुरूआती अवस्था में नत्रजन की आवश्यकता पूरी करने के लिये 20 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 60 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय देना चाहिये । सल्फर की कमी वाली भूमि में (10 पी.पी.एम. से कम) 20 से 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से सल्फर प्रयोग किया जाना चाहिये ।
लोबिया में सिंचाई
खरीफ मौसम की फसल में आमतौर पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है लेकिन लम्बे अन्तराल तक वर्षा न होने की दशा में 10-12 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिये । खरीफ फसल में जल निकास की उचित व्यवस्था करें। गर्मी में बोई गई फसल के लिये 10-15 दिनों के अन्तराल पर 5-6 सिंचाई की
आवश्यकता होती है।
लोबिया में खरपतवार नियंत्रण
गर्मी में बोई गई फसल में एक निराई-गुड़ाई पहली सिंचाई के बाद बतर आने पर करें। खरीफ में बोई गई फसल में 20 से 25 दिनों बाद खुरपी अथवा वीडर कम मल्चर से एक गुड़ाई करें । लोबिया में रासायनिक विधि द्वारा खरपतवार नियंत्रण हेतु इमेजाथापायर 0.1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना प्रभावकारी होता है ।
लोबिया की कटाई
लोबिया की हरे चारे के लिये कटाई 50 प्रतिशत फूल आने से लेकर 50 प्रतिशत फलियां बनने तक पूरी कर लेनी चाहिये। इसके बाद तना सख्त व मोटा हो जाता है और चारे की पौष्टिकता व स्वादिष्टता दोनों ही प्रभावित होती हैं। खरीफ मौसम की फसल 50-60 दिन में तथा गर्मियों की फसल 70-75 दिन में कटाई करने
के लिये तैयार हो जाती है।
लोबिया का उपज
गर्मियों में लोबिया की फसल लगभग 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा देती है। खरीफ में अच्छे प्रबंधन द्वारा 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।
5. जई
जई रबी मौसम की एक महत्वपूर्ण चारे की फसल है। इसका चारा पशुओं के खाने के लिए कोमल सुपाच्य एवं ऊर्जा दायक है। यह एकल कटाई एवं बहु कटाई वाली किस्मों में उपलब्ध है। इसके हरे चारे में 8-10 प्रतिशत कूड प्रोटीन, 18-23 प्रतिशत शुष्क पदार्थ तथा 60-70 प्रतिशत पाचनशीलता होती है। आजकल बहु कटाई वाली किस्मों के कारण इसके हरे चारे की उपलब्धता ज्यादा समय तक बनी रहती है। इससे ‘हे’ भी बनाया जा सकता है।
जई के लिए मृद एवं उसकी तैयारी
अच्छी जल निकास वाली उपजाऊ भूमि इसके लिये अच्छी मानी जाती है। जुताई के बाद पाटा लगा कर भुरभुरी मिट्टी से समतल खेत तैयार करना चाहिये।
उन्नत किस्म कैन्ट, बुन्देल जई -822, बुन्देल जई- 851. बुन्देल जई 2004, हरिता (आर.ओ.-19). यू.पी.ओ. -212, जे. ओ. – 1 बुवाई का समय इसकी बुवाई मध्य नवंबर तक कर देनी चाहिये। अधिक देरी करने पर बहु कटाई वाली जई में अंतिम कटाई में पैदावार कम मिलता है।
जई का बीज दर एवं बुवाई विधि
जई उत्पादन हेतु बीज दर 80-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होती है। हल के पीछे या सीड ड्रील से 20-25 से.मी. पंक्ति से पंक्ति की दूरी पर 3-4 से.मी. गहराई पर बुवाइ करनी चाहिए। खाद एवं उर्वरक बुवाई के समय 80 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस, 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर डाले एवं बहु कटाई वाली किस्मों में प्रत्येक कटाई के बाद 20 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
खरपतवार नियंत्रण अच्छा गुणवत्तायुक्त हरा चारा प्राप्त करने के लिये खरपतवार नियंत्रण अति आवश्यक है। बुवाई के 25-30 दिन बाद मेटसलफूरॉन 4 ग्राम सक्रिय तत्व 500 लीटर पानी में मिलाकर खड़ी फसल में छिड़काव करें। इस फसल में निराई-गुड़ाई की विशेष जरूरत नहीं होती है। सिंचाई तीन से चार सिंचाई पर्याप्त होती है।
बहु कटाई वाली किस्मों में कटाई के तुरंत बाद 20 कि.ग्रा. नत्रजन के साथ सिंचाई करनी चाहिए। कटाई प्रबंधन एकल कटाई वाली किस्में में 50 प्रतिशत बालियाँ आने पर कटाई करनी चाहिये। बहु कटाई वाली किस्म की पहली कटाई 50-55 दिनों पर दूसरी कटाई पहली कटाई के 45 दिनों बाद तथा तीसरी कटाई 50 प्रतिशत फूल आने पर करनी चाहिये।
बहु कटाई में कटाई जमीन से 8-10 से.मी. ऊपर से काटना चाहिये ताकि जई का विकास जल्दी हो सके। हरे चारे की पैदावार अच्छा प्रबंधन होने पर एकल कटाई वाली किस्मों से 450 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है, जबकि बहु कटाई वाली किस्म से 550 से 600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। रिजका / लूस रिजका या लूसर्न एक दलहनी उपयोगी चारा फसल है। रिजका सिंचित क्षेत्रों में काफी अधिक पैदावार देती है।
इस फसल से बरसात के मौसम के अलावा हर समय हरा चारा प्राप्त हो जाता है। इसे बहुवर्षीय अथवा एकवर्षीय दोनों तरह से उगाया जाता है। चूंकि छत्तीसगढ़ में अधिक वर्षा होती है, अतः बरसात के दिनों में बहुवर्षीय लूसर्न की जड़ प्रभावित हो जाती है एवं उपज प्राप्त नहीं होती है। अतः लूसर्न से छत्तीसगढ़ में अक्टूबर-नवम्बर से लेकर अप्रेल-मई तक हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।
6. नेपियर घास (Napier Grass)
परिचय
हाईब्रिड नेपियर घास, संकर हाथी घास (बाजरा x नेपियर) नेपियर घास वर्ष में कई कटाई देने वाली बहुवर्षीय चारा फसल है। यह बहुत तेजी से बढ़ने वाला चारा फसल है। वर्ष भर अधिक उपज, चारा गुणवत्ता एवं पाचनशीलता आदि गुणों के कारण यह किसानों के बीच काफी लोकप्रिय होती जा रही है। अधिकतम चारा बरसात एवं गर्मी के महीनों में प्राप्त होता है। ठण्ड के दिनों में इसकी वृद्धि कम हो जाती है।
इसकी जड़ों को एक बार लगा कर उचित प्रबंधन द्वारा 2-3 वर्षों तक हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। इसके चारे में शुष्क भार के आधार पर 8-9 प्रतिशत कूड प्रोटीन पाई जाती है। उत्पादन के लिए जमीन से काफी मात्रा में पोषक तत्व निकास एवं अच्छी उर्वरता वाली भूमि उपयुक्त होती है। भूमि की तैयारी हेतु, एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से, 2-3 जुताई हैरो या कल्टीवेटर से करनी चाहिये।
नेपियर की उन्नत किस्म
सी.ओ.-3, सी.ओ.-5, आर.बी.एन.-13, संपूर्ण (डी.एच.एन. -6), आई.जी.एफ.आर.आई.-7
नेपियर के लिए भूमि की तैयारी
यह फसल शीघ्र बढ़वार एवं अत्यधिक है।
नेपियर रोपाई का समय एवं तरीका
इसे जड़ या तने के टुकड़ों द्वारा उगाया जाता है। सिंचित अवस्था में फरवरी-मार्च एवं असिंचित अवस्था में जुलाई-अगस्त में रोपाई करनी चाहिये। इसकी रोपाई जड़दार कल्लों या तनों द्वारा की जाती है। रोपाई 60×60 से.मी. पर करना चाहिये एक हेक्टेयर के लिए 30,000 जड़दार कल्लों की आवश्यकता पड़ती है। रोपाई हेतु जड़ित कल्लों को जमीन में कुदाली द्वारा 45° से कोण पर 5 से.मी. गहरा गाड़कर मिट्टी से दबा देना चाहिये।
एक गांठ वाली तने को सुलाकर एवं दो गांठ वाली तने को एक गांठ जमीन के अंदर एवं एक गांठ जमीन के ऊपर रखते हुये रोपाई करना चाहिये। 35,000 खाद एवं उर्वरक यह अधिक खाद चाहने वाला फसल है। अतः बुवाई पूर्व जमीन तैयारी के समय 20-25 टन गोबर खाद बुवाई के 25 दिन पहले मिलाना चाहिये। रोपाई के समय नत्रजन 60 फास्फोरस 50 एवं पोटाश 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर डालें। प्रत्येक कटाई के बाद 30 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये। निंदाई एवं गुड़ाई: हर कटाई के बाद और खाद डालने से पहले हल्की गुड़ाई कर देनी चाहिए।
नेपियर में सिंचाई
रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करें। जड़ तक मृदा नमी का विशेष ध्यान रखें। गर्मी में 10-15 दिनों के अंतराल पर एवं ठंड में 20-25 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें। प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करना चाहिये। कटाई पहली कटाई 60-75 दिनों बाद एवं अगली कटाईयॉ 40-50 दिनों के अंतराल में करें। वर्ष में 5-6 कटाई प्राप्त होती है। कटाई 10-15 से. मी. ऊपर से करें।
नेपियर का उपज
नेपियर घास से 1000 से 12000 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है। पुनरूधार कई वर्षो तक लगातार कटाई करने पर मृत कल्लों की संख्या बढ़ती रहती है। अतः वर्ष प्रारंभ होने के पूर्व मृत कल्लों को हटा देना चाहिये। इन्हीं पौधों से जड़ या तना निकाल कर नयी जगह लगाया जा सकता
है या अन्य किसानों को बेचा जा सकता है।
7. लूसर्न
लूसर्न का चारा पौष्टिक एवं पाचक होता है। सभी प्रकार के पशु अर्थात दुधारू एवं भारवाहक पशु इसे पसन्द करते हैं। इसमें 15 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन तथा पाचकता 72 प्रतिशत होती है।
लूसर्न की खेती के लिए मृदा एवं उसकी तैयारी
गहरी तथा अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ मृदा रिजका उत्पादन के लिये अच्छी मानी जाती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की दो जुताई हैरो से करके पाटा लगा कर खेत समतल कर लेना चाहिये। जल निकास का विशेष ध्यान रखना चाहिये। बुवाई का समय लूसर्न को बोने का उचित समय मध्य अक्टूबर से नवम्बर का प्रथम सप्ताह अच्छा होता है।
लूसर्न उन्नत किस्में
आनन्द लूसर्न-2, आनन्द लूसर्न-3, आर.एल.-88 (बहुवर्षीय), चेतक, कृष्णा ।
लूसर्न के लिए बीज दर एवं बुवाई विधि
छिड़काव विधि द्वारा लूसर्न लगाने पर 20-25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज दर की आवश्यकता होती है। जबकि लाइन विधि द्वारा बुवाई करने पर 12-15 कि.ग्रा. बीज दर की आवश्यकता पड़ती है। कतार विधि द्वारा बुवाई करने के लिये 30 से.मी. पंक्ति से पंक्ति की दूरी पर बुवाई करनी चाहिये।
लूसर्न में खाद एवं उर्वरक
दलहनी फसल होने के कारण जड़ों द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु द्वारा होता है। जिस भूमि में प्रथम बार रिजका की बुवाई हो रही है, वहां बीज उपचार राइजोबियम मेलिलोटाई से करने पर फसल प्रदर्शन अधिक अच्छा होता है। बहुवर्षीय किस्मों में 20 टन प्रति हेक्टेयर गोबर खाद प्रति वर्ष डालना
चित होता है। रिजका हेतु 20 कि.ग्रा. नत्रजन एवं 60 से 70 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय डालना चाहिये।
लूसर्न में सिंचाई
अच्छे अंकुरण के लिये बुवाई के पहले सिंचाई (पलेवा) करना अच्छा होता है। पहली सिंचाई बुवाई के एक माह पश्चात करनी चाहिये। बाद की सिंचाई मौसम एवं भूमि में नमी के अनुरूप 10-15 दिनों से 20-25 दिनों के अन्तराल पर करनी चाहिये। लूसर्न में पानी का निकास अच्छा होना चाहिये। कटाई के पश्चात 2-3 सिंचाई अगली चारा कटाई से पहले करने पर उत्पादन अच्छा होता है।
कटाई
पहली कटाई बुवाई के 55 से 65 दिनों बाद करनी चाहिये। बाद की कटाई 25 से 30 दिनों के अन्तराल पर करें। एकवर्षीय लूसर्न 3 5 कटाई एवं बहुवर्षीय 6 से 7 कटाई वर्ष में देती है।
लूसर्न का उपज
हरे चारे साल की लगभग 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
पशुओं के विकास एवं दुग्ध भर हरे चारे के उत्पादन हेतु फसल उत्पादन के लिये आवश्यक है कि पशुओं को पौष्टिक चारा व सन्तुलित आहार साल भर मिलता रहे। वर्ष के कुछ महीनों में जैसे- अक्टूबर-नवम्बर व मई-जून में हरे चारे की कमी आ जाने के कारण हम पशुओं को हरा चारा पूर्ण मात्रा में नहीं दे पाते हैं। जिससे पशुओं के स्वास्थ्य एवं दुग्ध उत्पादन दोनों में कमी आती है।
इसलिए उचित फसल-चक्र अपनाकर साल भर हरा चारा की प्राप्ति की जा सकती है। फसल-चक्र में दलहनी एवं अदलहनी फसलों का समावेश होना चाहिये। फसल-चक्र में आधे भाग में बहुवर्षीय फसलों के साथ आधे भाग में दलहनी एवं अदलहनी मौसमी फसलों का समावेश किया जाना अच्छा रहता है ताकि वर्ष भर हरा चारा प्राप्त किया जा सके। साल भर हरा चारा प्राप्त करने हेतु सिंचाई का महत्व अधिक है।
भूमि का चयन गौशाला एवं डेयरी यूनिट के पास करना चाहिये ताकि चारा दुलाई का व्यय कम किया जा सके। बहुवर्षीय फसलों जैसे- नेपियर घास, बहुवर्षीय ज्वार आदि को मेड़ों पर भी लगाया जा सकता है।
यहां वैज्ञानिकों के प्रयोगों के आधार पर प्रचलित कुछ चारा वाली फसलें का फसल-चक्र का उल्लेख किया जा रहा है।
1. संकर हाथी घास (बाजरा X नेपियर घास) – लोबिया (खरीफ में) – बरसीम + चाइनीज सरसों (रबी में)
लोबिया (गर्मियों में) संकर हाथी घास (बाजरा X नेपियर घास) एक बहुवर्षीय फसल है। इसे मध्य फरवरी से मध्य मार्च में जड़ों व तनों द्वारा लगाया जाता है। इसके लिये हाथी घास की 12000-14000 जड़दार कल्लों या कटिंग की आवश्यकता प्रति एकड़ जरूरत पड़ती है।
संकर हाथी घास की दो लाइनों का फासला दो मीटर तथा पौधे से पौधे का फासला 60 से.मी. रखना चाहिये। बरसात के मौसम में संकर हाथी घास द्वारा पर्याप्त पैदावार मिलती है। पौष्टिकता को बढ़ाने के लिये दो लाइनों के बीच में लोबिया लगाना चाहिये ताकि दलहनी एवं अदलहनी फसलों का समावेश किया जा सके। ठण्ड के मौसम में संकर हाथी घास का उत्पादन कम हो जाता है।
अतः अक्टूबर के महीने में हाथी घास की अंतिम कटाई कर लाइनों के बीच में बरसीम+चाइनीज सरसों की बिजाई कर लेना चाहिये। इस मौसम में बरसीम द्वारा हरा चारा मध्य मार्च तक प्राप्त होता है।
गर्मी आते ही संकर घास पुनः अधिक चारा देना प्रारम्भ कर देता है। अतः अप्रैल के अन्त में दलहनी बरसीम चारा मिलना बन्द हो जाता है। अतः गर्मियों के महीने में मई-जून में दो लाइनों के बीच में लोबिया लगाना चाहिये ताकि पौष्टिकता बनी रहे। इस पूरे फसल-चक्र में पूरे वर्ष 650 से 700 क्विं. प्रति एकड़ हरा चारा प्राप्त होता है।
2. मक्का + राइस बीन (2:1) / लोबिया – जई (बहु कटाई) -ज्वार (बहु कटाई)+ लोबिया (2:1 )
इस फसल-चक्र की सभी फसलें एकवर्षीय हैं। खरीफ में मक्का एवं राइस बीन या लोबिया की बुवाई 2:1 के अनुपात में या मक्का की दो लाइन के बाद राइस बीन या लोबिया की एक लाइन लगाना चाहिये। इससे दलहनी एवं अदलहनी फसलों का मिश्रण हो जाता हैं इस फसल के कटने के उपरान्त मध्य अक्टूबर में जई (बहु कटाई) वाली फसल लगाना चाहिये।
जई की दो से तीन कटाई द्वारा हरा चारा रबी में प्राप्त किया जा सकता है। गर्मी में मार्च के अन्त या अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में ज्वार बहु कटाई के साथ लोबिया 2:1 के अनुपात में लगाने पर गर्मी में भी हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। इस फसल-चक्र से 450 से 500 क्विं. हरा चारा प्रति एकड़ प्राप्त किया जा सकता है।
3. बाजरा (बहु कटाई)+राइस बीन / लोबिया (2:1) – जई (बहु कटाई) या बरसीम या रिजका – मक्का + लोबिया (2:1)
इस फसल-चक्र की सभी फसलें एकवर्षीय हैं। खरीफ मौसम में बाजरा (बहु कटाई) के साथ राइस बीन या लोबिया 2:1 के अनुपात में दो लाइन बाजारा बाद मध्य में एक लाइन राइस बीन/लोबिया को लगाने पर अधिक एवं सन्तुलित चारा की प्राप्ति होती है। मध्य नवम्बर में जई बहु कटाई की बुवाई किया जाना चाहिये। बहु कटाई जई से दो से तीन कटाई हरा चारा मार्च तक प्राप्त किया जा सकता है।
जई यदि उपलब्ध ना हो तो बरसीम या रिजका फसल की बुवाई मध्य नवम्बर तक कर देनी चाहिये। बरसीम को अन्त नवम्बर तक चार से पांच कटाई प्राप्त होती है। रिजका की तीन से चार कटाई प्राप्त की जा सकती है। गर्मी में मक्का एवं लोबिया 2:1 के अनुपात में लगाने पर गर्मियों में भी हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है। इस फसल-चक्र को अपना कर 450 से 500 क्विं. प्रति एकड़ हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।
4. चारा हेतु उपलब्ध जमीन का विभाजन किस प्रकार करें ?
हरा चारा उगाने हेतु उपलब्ध जमीन का विभाजन इस प्रकार करना चाहिये कि वर्ष भर सन्तुलित चारा पशुओं हेतु उपलब्ध हो सके। भूमि का विभाजन इस प्रकार करें कि बहुवर्षीय चारा कम से कम पचास प्रतिशत भाग में लगें, शेष पचास प्रतिशत भाग में एकवर्षीय मौसमी चारा फसल ली जानी चाहिये ताकि वर्ष भर हरा चारा प्राप्त किया जा सके। पचास प्रतिशत बहुवर्षीय चारा में 25 प्रतिशत भाग में संकर नेपियर घास एवं 25 प्रतिशत भाग में बहुवर्षीय ज्वार COFS-29 लगाना चाहिये।
इससे नेपियर घास द्वारा वर्ष में 5-6 कटाई एवं बहुवर्षीय ज्वार द्वारा 6-7 कटाई प्राप्त होता है। ठण्ड के मौसम में संकर नेपियर घास की वृद्धि कम हो जाती है। शेष बचे पचास प्रतिशत भाग में एकवर्षीय चारा फसलों को लगाना चाहिये। खरीफ मौसम में मक्का या बाजरा 30 प्रतिशत भाग में लोबिया 20 प्रतिशत भाग में लगाना चाहिये, जिससे दलहनी एवं अदलहनी फसलों का समावेश हो सके।
रबी में बीज की उपलब्धता के आधार पर बरसीम, लूसर्न (रिजका) या जई लगाना चाहिये। गर्मी में पुनः मीठी सूडान / मक्का 25 प्रतिशत भाग में एवं 25 प्रतिशत भाग में लोबिया को लगाना चाहिये। इस प्रकार भूमि का आबंटन अलग-अलग फसलों में मौसम के अनुसार कर सन्तुलित एवं अधिक से अधिक हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।