फसलों के विषाणु रोग (Viral Diseases of Plant) एवं नियंत्रण के उपाय @2024

फसलों के विषाणु रोग (Viral Diseases of Plant) एवं उसका नियंत्रण

विषाणुओं (Viruses) को विष के अणु भी कहा जाता है जो इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखने पर कणिकामय संरचनाओं जैसे दिखाई देते हैं। विषाणुओं (Viruses) के संक्रामक लक्षण (Symptom) उनके न्यूक्लिक अम्ल में मौजूद रहते हैं अतः स्वस्थ पौधों में प्रवेश करते समय विषाणुओं (Viruses) का प्रोटीन आवरण बाहर ही रह जाता है एवं परपोषी संक्रमित हो जाते हैं। अनेक दशाओं में विषाणुओं (Viruses) के न्यूक्लिक अम्ल के साथ प्रोटीन का आवरण भी जीवित कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है लेकिन जीवित कोशिकाओं में प्रवेश के साथ ही यह आवरण फट जाता है एवं संक्रमण (Infection) क्रिया शुरू हो जाती है।

वायरस
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विषाणु कीटों द्वारा किये गये घावों के रास्ते से भी परपोषियों में प्रवेश कर जाते हैं। विषाणुओं (Viruses) द्वारा फैलाये जाने वाले कुछ रोग निम्न प्रकार हैं :

सोयाबीन / मूंग का मोजेक रोग (mosaic disease of soyabean)

सोयाबीन उगाने वाले सभी क्षेत्रों में रोग का प्रकोप होता है। इस रोग का वायरस बीजों के अंदर होने के कारण इसे बीजोढ़ रोग कह सकते हैं।

संक्रमण (Infection) – पौधों में बीजों से प्राथमिक संक्रमण (Infection) होने के बाद इस रोग का फैलाव ऐफिड कीट द्वारा ही होता है। रोगग्रसित बीज बोने पर पौधा इस रोग से संक्रमित हो जाता है तथा ऐफिड कीट इस वायरस का वाहक बनकर स्वस्थ पौधों को भी संक्रमित कर देता है।

लक्षण (Symptom) – इस रोग के लक्षण (Symptom) मुख्यतः पत्तियों व फलियों में ही देखने को मिलते हैं। पत्तियाँ संकुचित होकर नीचे की ओर मुड़ जाती हैं जिससे फलियों में बीज कम लगते हैं।

नियन्त्रण – मूँग की बीजाई 15-20 जुलाई तक करें।

इस रोग के नियन्त्रण के लिए ग्रसित पौधों को तुरन्त उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए।

भूमि में या फसलों पर विसंक्रमण (Infection) के लिए समय-समय पर नीम के सूखे पत्तों का पाउडर, नीम के बीजों का पाउडर या नींबौली के पाउडर का पांच प्रतिशत (100 लीटर पानी में 5 कि.ग्रा.) से छिड़काव करते रहना चाहिए।

सोयाबीन/ मूंग का पीला मोजेक रोग (yellow mosaic disease of soyabean)

यह रोग मूँग के पीला मोजेक वायरस द्वारा उत्पन्न होता है तथा बैमेसिया टैबेकाई नामक सफेद मक्खी द्वारा स्वस्थ पौधों तक फैलता है।

संक्रमण (Infection) –सफेद मक्खी साल-भर सक्रिय रहती है तथा एक बार वायरस ग्रहण करने के बाद अपनी उम्र-भर रोग फैला सकती है। इसके साथ यह वायरस सफेद मक्खी द्वारा अन्य दलहनी फसलों तथा खरपतवारों पर भी रोग फैलाता है। अतः सोयाबीन की फसल खेत में रहने या ना रहने से यह वायरस लुप्त नहीं हो जाता है। इस कारण इस रोग को सोयाबीन व दलहनी फसलों का विनाशकारी रोग माना जाता है।

लक्षण (Symptom) –इस रोग का लक्षण (Symptom) सर्वप्रथम पत्तियों पर गहरे पीले रंग के धब्बों के रूप में प्रकट होता है। ये धब्बे धीरे-धीरे फैलकर आपस में मिल जाते हैं जिससे पूरी पत्ती ही पीली पड़ जाती है। पत्तियों के पीला पड़ने के कारण अनेक जैविक क्रियाएँ प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती हैं तथा पौधों में आवश्यक भोज्य पदार्थ का संश्लेषण नहीं हो पाता है। अतः पौधों पर पुष्पन कम होता है एवं फलियाँ विकृत हो जाती हैं और अगर फलियाँ लगती भी हैं तो उनमें दानों का विकास नहीं हो
पाता है।

नियन्त्रण- रोग अवरोधी किस्में- एच.यू.एम-16, एम.एच-83-20/96-1, पी.के.-416/472/1024/1042, पी.एस.-564, एस.एल.-295, हरा सोया, पूसा-37 की बिजाई करें।
भूमि में या फसलों पर विसंक्रमण (Infection) के लिए समय-समय पर नीम के सूखे पत्तों का पाउडर, नीम के बीजों का पाउडर या नींबौली के पाउडर का पांच प्रतिशत (100 लीटर पानी में 5 कि.ग्रा.) से छिड़काव करते रहना चाहिए।

मूँगफली का रोजेट रोग (rosette disease of groundnut)

यह रोग मूँगफली उगाने वाले सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। यह एक बीजोढ़ रोग है।

संक्रमण (Infection) – रोगजनक विषाणु मूँगफली की फलियों में जीवित रहता है तथा स्वस्थ पौधों तक इस रोग का फैलाव ऐफिड कीट द्वारा होता है। रोगी फलियाँ जब-कभी बीज के रूप में बोई जाती हैं तो बीज के अंकुरण के साथ यह वायरस पौधों को संक्रमित कर देता है। संक्रमित पौधों से जब ये ऐफिड कीट रस चूसते हैं तो इन पौधों में उपस्थित वायरस को भी ग्रहण कर लेते हैं तथा इन कीटों द्वारा दूसरे स्वस्थ पौधों का रस चूसते समय यह वायरस उनमें स्थानान्तरित हो जाते हैं। इस प्रकार स्वस्थ पौधों तक इस रोग का संक्रमण (Infection) फैलता है।

लक्षण (Symptom) – इस रोग के लक्षण (Symptom) मुख्यतः पत्तियों में कई रूपों में देखने को मिलते हैं। इस रोग से कुछ पत्तियों का रंग हलका हरा होकर पत्तियों में हरिमाहीनता पैदा हो जाती है जो धीरे-धीरे फिर अपने सामान्य रूप में आ जाती है। कुछ पत्तियों में अधिक हरिमाहीनता उत्पन्न होने से पत्तियाँ चितकबरी हो जाती हैं। कुछ पत्तियाँ अन्य पत्तियों के मुकाबले अत्यधिक हरी होकर भी रोगग्रसित हो जाती हैं। फलतः पौधों में उचित प्रकार से पुष्पन व फलियाँ नहीं लग पाती हैं।

नियन्त्रण – रोगग्रस्त पौधों एवं खरपतवार को खेतों से उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए।

भूमि में या फसलों पर विसंक्रमण (Infection) के लिए समय-समय पर नीम के सूखे पत्तों का पाउडर, नीम के बीजों का पाउडर या नींबौली के पाउडर का पांच प्रतिशत (100 लीटर पानी में 5 कि.ग्रा.) से छिड़काव करते रहना चाहिए।

मूँगफली का चित्तीदार/कुर्बरन रोग (mottle disease of groundnut)

यह एक बीजोढ़ रोग है जो मूँगफली उगाने वाले लगभग सभी क्षेत्रों में पाया जाता है।

संक्रमण (Infection) – इस रोग का विषाणु मूँगफली की फलियों में जीवित रहता है तथा रोगी फलियाँ जब-कभी बीज के रूप में बोई जाती हैं तो बीज के अंकुरण के साथ यह वायरस पौधों को संक्रमित कर देता है। अन्य वायरसों की तरह इस वायरस का वाहक भी ऐफिड कीट ही समझा जाता है। संक्रमित पौधों से जब ये ऐफिड कीट रस चूसते हैं तो पौधों में उपस्थित वायरस इनकी लार ग्रन्थियों (salivary glands) में प्रवेश कर जाते हैं तथा इन कीटों द्वारा दूसरे स्वस्थ पौधों का रस चूसते समय उनमें स्थानान्तरित हो जाते हैं। इस प्रकार स्वस्थ पौधों तक इस रोग का संक्रमण (Infection) फैलता है।

लक्षण (Symptom)- इस रोग के कारण पत्तियाँ सिकुड़कर ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं। पत्तियों में हरिमाहीनता उत्पन्न हो जाती है जो बाद में चितकबरेपन के रूप में पत्तियों पर जगह-जगह फैल जाती है। इस कारण पत्तियों के किनारे उभरने लगते हैं तथा पत्तियों में गोल विक्षत बन जाते हैं।

नियन्त्रण- रोगग्रस्त पौधों एवं खरपतवार को खेतों से उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
खड़ी फसल पर वाहक कीट ऐफिड के नियन्त्रण के लिए पृष्ठ संख्या 67 देखें।
भूमि में या फसलों पर विसंक्रमण (Infection) के लिए समय-समय पर नीम के सूखे पत्तों का पाउडर, नीम के बीजों का पाउडर या नींबौली के पाउडर का पांच प्रतिशत (100 लीटर पानी में 5 कि.ग्रा.) से छिड़काव करते रहना चाहिए।

गन्ने का मोजेक रोग (mosaic disease of sugercane)

यह रोग गन्ना उगाने वाले लगभग सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। इस रोग को गन्ना मोजेक वायरस भी कहते हैं।

संक्रमण (Infection) – यह वायरस अनेक प्रकार की घासों पर भी पाया जाता है। गन्ने के पौधों एवं खरपतवारों आदि पर यह वायरस जीवित रहता है। इस रोग के संक्रमण (Infection) के मुख्य स्रोत रोपण के लिए रोगी पौधे से प्राप्त पोरियाँ होती हैं। कुछ रोगवाहक कीट इस वायरस को स्वस्थ पौधों तक पहुँचाकर रोग फैलाते हैं।

लक्षण (Symptom) – सामान्यतः इस रोग के लक्षण (Symptom) जून से दिखाई देने शुरू होते हैं। हरी पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे बनने लगते हैं जो गोल या लंबे हो सकते हैं। धीरे-धीरे इन धब्बों से पत्तियों में चितकबरापन पैदा हो जाता है तथा पत्तियाँ कड़ी हो जाती हैं। पत्तियों से चितकबरापन गन्ने के वृंतों तक फैल जाता है। पौधों में हरेपन की कमी के कारण प्रकाश संश्लेषण उचित प्रकार से नहीं हो पाता है तथा पौधे की वृद्धि बाधित होती है।

नियन्त्रण – इस रोग के नियन्त्रण के लिए रोगग्रस्त पौधों एवं खरपतवार को खेतों से उखाड़कर नष्ट कर दें।
पोरियों को अच्छी तरह जाँच-परख कर केवल स्वस्थ पोरियों का ही रोपाई के लिए उपयोग करना चाहिए।

भूमि में या फसलों पर विसंक्रमण (Infection) के लिए समय-समय पर नीम के सूखे पत्तों का पाउडर, नीम के बीजों का पाउडर या नींबौली के पाउडर का पांच प्रतिशत (100 लीटर पानी में 5 कि.ग्रा.) से छिड़काव करते रहना चाहिए।

कपास का पत्ती मरोड़ रोग (leaf curl virus of cotton)

यह जैमिनी वायरस रोग है तथा सफेद मक्खी इस वायरस के वाहक का कार्य करती है।

संक्रमण (Infection) -इस रोग के रोगजनक फसल के अवशेषों में उपस्थित रहते हैं तथा पौधों में प्राथमिक संक्रमण (Infection) यहीं से आरम्भ होता है। यह रोग उत्तर भारत में अमेरिकन कपास में मुख्य रूप से पाया जाता है। स्वस्थ पौधों तक इस रोग का संक्रमण (Infection) सफेद मक्खी द्वारा होता है।

लक्षण (Symptom) – कपास की अलग-अलग किस्मों में इस रोग के अलग-अलग लक्षण (Symptom) दिखाई देते हैं। कुछ किस्मों में पत्तियाँ ऊपर व नीचे की ओर मुड़ कर कप के आकार की हो जाती हैं, कुछ किस्मों में पौधों की चोटी की पत्तियों की नसें मोटी हो जाती हैं तथा नसों पर हरे-हरे उभार हो जाते हैं, कुछ किस्मों में पत्तियों की निचली सतह पर कान जैसे आकार वाली संरचनायें बन जाती है। परिणामस्वरूप पत्तियों का पर्णहरित नष्ट हो जाता है, पौधे की बढ़वार रुक जाती है, पौधा झाड़ीनुमा दिखाई देता है तथा उस पर फूल, कलियाँ व टिण्डे कम लगते हैं।

नियन्त्रण – नरमे की फसल के पास भिण्डी की फसल ना लें तथा पीले ट्रेप का प्रयोग करें।

प्रतिरोधी व सहनशील किस्में- एच.-1117/ 1226, एच.एच.एच.-223/ 287, आर.जी.-8, आर.एस-875, एल.आर.ए.-5166, एल.एच.एच.-144, जी.के.-515, एन.एस.सी.-145/ 913 आदि की बीजाई करें।

धान का टूंग्रो वायरस रोग (tungro virus of paddy)

यह एक मृदोढ़ रोग है जो टूग्रो वायरस द्वारा उत्पन्न होता है।

संक्रमण (Infection) – रोगजनक फसल के अवशेषों में जीवित रहता है तथा पौधों में प्राथमिक संक्रमण (Infection) यहीं से होता है। स्वस्थ पौधों तक इस वायरस का फैलाव हरे फुदके द्वारा होता है जो इस वायरस के वाहक का कार्य करता है।

लक्षण (Symptom)- इस वायरस के कारण जड़ों का विकास रुक जाता है तथा ग्रसित पौधे स्वस्थ पौधों की अपेक्षा छोटे रह जाते हैं। पत्तियों का रंग पीला, नारंगी या बदरंग-सा हो जाता है तथा कभी-कभी पत्तियों की शिराओं के आस-पास लंबी-लंबी धारियाँ भी बन जाती हैं। परिणामस्वरूप पौधों में बालियाँ देरी से बनती हैं तथा दानों का विकास नहीं हो पाता है और यदि ढाने लगते भी हैं तो निम्न कोटि के होते हैं।

नियन्त्रण- फसल के अवशेषों को नष्ट कर दें तथा रोग के लक्षण (Symptom) दीखते ही पौधे को उखाड़कर फेंक दें एवं नाइट्रोजन की अतिरिक्त मात्रा खेत में डालें जिससे पौधों की बढ़वार जल्दी हो सके।

भूमि में या फसलों पर विसंक्रमण (Infection) के लिए समय-समय पर नीम के सूखे पत्तों का पाउडर, नीम के बीजों का पाउडर या नींबौली के पाउडर का पांच प्रतिशत (100 लीटर पानी में 5 कि.ग्रा.) से छिड़काव करते रहना चाहिए।

अरहर का बंध्यता मोजेक रोग (sterlity mosaic of pigeon pea)

अरहर एकवर्षीय फसल होने के कारण यह वायरस साल-भर तक फसलों पर ही रहता है।

संक्रमण (Infection) -फसलों पर इस वायरस की उपस्थिति साल-भर तक रहती है तथा स्वस्थ पौधों तक इस वायरस का फैलाव ईरियोफिट माइट द्वारा होता है।

लक्षण (Symptom)- इस वायरस के आक्रमण के कारण पौधे का हरापन धीरे-धीरे कम होने लगता है तथा ऐसे पौधों की पत्तियाँ स्वस्थ पौधे की पत्तियों की अपेक्षा छोटी रह जाती हैं। पत्तियों पर अनियमित आकार के हरे रंग के धब्बे भी पड़ जाते हैं। ग्रसित पौधों में शाखाएँ अधिक फूटती हैं तथा फूल व फल कम लगते हैं। रोग के उग्र रूप धारण करने पर पौधे से अत्यधिक शाखाएँ निकल आती हैं तथा पौधा झाड़ीनुमा दिखाई देता है।

नियन्त्रण- खेतों में सफाई रखें तथा रोग के लक्षण (Symptom) दीखते ही पौधे को उखाड़कर फेंक दें।
रोग रोधी किस्में- सी-11, जे.ए.-4, बी.एस.एम.आर.- 736, आशा, मुक्ता, बिरसा, प्रभात आदि की बीजाई करें।
रोग का फैलाव करने वाले माइट के नियन्त्रण के लिए प्रतिलीटर पानी में 1.5 ग्रा. गंधक पाउडर 80 डब्ल्यू.पी. छिड़काव करें।

भूमि में या फसलों पर विसंक्रमण (Infection) के लिए समय-समय पर नीम के सूखे पत्तों का पाउडर, नीम के बीजों का पाउडर या नींबौली के पाउडर का पांच प्रतिशत (100 लीटर पानी में 5 कि.ग्रा.) से छिड़काव करते रहना चाहिए।

तम्बाकू का मोजेक रोग (tobacco Mosaic)

तम्बाकू की फसल को इस वायरस से भारी क्षति होती है और तम्बाकू की पैदावार व गुणवत्ता दोनों ही घट जाते हैं। यह एक मृदोढ रोग है जो टोबेको मोजेक वायरस द्वारा होता है।

संक्रमण (Infection) -यह वायरस रस संचरणशील है और परपोषी के भीतर खरोंच या रगड़ से, पत्तियों के घिसने या टूटे बालों से बने महीन घावों द्वारा प्रवेश करता है । इस वायरस की उत्तरजीविता रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों एवं तम्बाकू से बनी वस्तुओं- सिगरेट, बीड़ी, सिगार व खाने वाले तम्बाकू द्वारा होती है। रोगग्राही खरपतवारों द्वारा एवं निराई-गुड़ाई, रोपण, काट-छांट इत्यादि द्वारा पौधों पर घाव बन जाते हैं जिनसे इस वायरस का प्रवेश आसानी से हो जाता है। खड़ी फसल में काम करने वाले मनुष्यों के संदूषित हाथों से भी स्वस्थ पौधों में इस रोग का फैलाव होता है।

यह वायरस प्रतिकूल पर्यावरण एवं वातावरणीय अवस्थाओं के प्रति अत्यधिक प्रतिरोधी होता है। यह वायरस अब तक के समस्त वायरसों में सबसेअधिक तापसह वायरस है। अतनु पादप रस में इसका तापिक निष्क्रियन बिन्दु (Thermal Inactivation Point) 92°C | है। शुष्क अवस्थाओं में यह 50 वर्षों तक जीवित रह सकता है। अतः यह वायरस यदि एक बार खेतों में पहुँच जाए तो किसी भी समय संक्रमण (Infection) कर सकता है।

लक्षण (Symptom)- सर्वप्रथम रोग के लक्षण (Symptom) तम्बाकू के तरुण पौधों की नई पत्तियों पर दिखाई देते हैं जिससे पत्तियाँ नीचे की | ओर ऐंठने लगती हैं तथा इनमें विरूपण के साथ-साथ हरिमाहीनता उत्पन्न हो जाती है। जैसे-जैसे पतियाँ आकार में बढ़ती उनके उपर असामान्य गहरे रंग के धब्बे बन जाते हैं जो अनियमित फफोले के आकार में विकसित होते हैं एवं पत्ती के बाकी ऊतकों में बहुत अधिक हरिमाहीनता उत्पन्न हो जाती है। कुछ पत्तियाँ विकृत हो जाती हैं एवं कुछ केवल चितकबरी ही दिखाई देती हैं । पुरानी पत्तियों पर चितकबरे धब्बों के स्थान पर पीले दाग या कहीं-कहीं ऊतकक्षयी चित्तियाँ बन जाती हैं। परिणामस्वरूप पौधे की वृद्धि रुक जाती है एवं पौधा छोटा रह जाता है।

नियन्त्रण –खेत में पाये जाने वाले सभी प्रकार के खरपतवारों, रोगी पौधे के अवशेषों एवं सोलेनेसी कुल के पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
जैसे ही कुछ पौधों पर रोग के लक्षण (Symptom) दिखाई दें, उन्हें जलाकर नष्ट कर देना चाहिए।

खेत में काम करने से पहले हाथों को साबुन से अच्छी तरह साफ कर लें। पौधरोपण एवं अन्य कृषक क्रियाएँ करने से पहले सभी यन्त्रों का निर्जर्मीकरण (sterilization) कर लेना चाहिए।

रोगरोधी किस्म, जैसे अम्बालैना की खेती करनी चाहिए।

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